शनिदेव के पिता कौन हैं, जानिए पिता-पुत्र के रिश्तें की क्या है कहानी ?
शास्त्रों और पुराणों में शनि देव को न्याय के देवता और कर्मफलदाता के रूप में माना गया है। उनकी कथा से जुड़ी कई रोचक और गूढ़ कहानियां हैं जो हमें जीवन के गहरे पाठ सिखाती हैं। यहां हम शनि देव के जन्म से जुड़ी दो प्रमुख पौराणिक कथाओं को विस्तार से समझेंगे।
पहली कथा के अनुसार, शनि देव सूर्यदेव और संवर्णा के पुत्र हैं। यह कहानी स्कंदपुराण के काशीखंड में वर्णित है। सूर्यदेव का विवाह राजा दक्ष की कन्या संज्ञा से हुआ था। संज्ञा एक धार्मिक और साध्वी स्त्री थीं, लेकिन सूर्यदेव के तेज और उनके तप से हमेशा परेशान रहती थीं। इस तेज को सहन करना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा था।
संज्ञा ने सूर्यदेव के तप से मुक्ति पाने का उपाय सोचा। उन्होंने अपनी तपस्या शुरू करने का निश्चय किया, लेकिन अपने बच्चों को छोड़कर जाना संभव नहीं था। इसलिए उन्होंने अपनी छाया के रूप में संवर्णा को बनाया और उसे अपने स्थान पर सूर्यदेव और बच्चों की देखभाल का उत्तरदायित्व सौंप दिया। इसके बाद संज्ञा अपने पिता के पास गईं और अपनी समस्या बताई। उनके पिता ने उन्हें डांटकर वापस भेज दिया, लेकिन संज्ञा ने अपने घर लौटने के बजाय जंगल में जाकर घोड़ी का रूप धारण कर लिया और तपस्या में लीन हो गईं।
इस दौरान सूर्यदेव को इस बात का आभास नहीं हुआ कि उनके साथ रहने वाली संवर्णा वास्तव में संज्ञा नहीं हैं। संवर्णा के साथ सूर्यदेव के मिलन से शनिदेव, मनु और भद्रा का जन्म हुआ। शनिदेव को विशेष रूप से न्याय और कर्मफल का देवता माना गया, और यह विश्वास किया जाता है कि वह प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्मों के आधार पर फल प्रदान करते हैं।
दूसरी कथा के अनुसार, शनि देव का जन्म महर्षि कश्यप के एक यज्ञ से हुआ था। यह यज्ञ विशेष रूप से धर्म और न्याय की स्थापना के लिए आयोजित किया गया था। इस यज्ञ के फलस्वरूप शनिदेव प्रकट हुए और उन्होंने न्याय के कार्य में अपना दायित्व संभाला।
इन कथाओं के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि शनि देव केवल दंड देने वाले नहीं, बल्कि न्याय के अधिष्ठाता हैं। उनकी उपासना से मनुष्य अपने बुरे कर्मों के दुष्प्रभावों को कम कर सकता है और अपने जीवन में संतुलन ला सकता है। शनिदेव के चरित्र से हमें यह सीख मिलती है कि हमारे कर्म ही हमारे भविष्य का निर्धारण करते हैं।